Wednesday, November 26, 2014

चप्पल

छोटी गुड्डू ने सुबह सुबह से रो रोकर घर सर पे उठा रक्खा था, बस एक ही ज़िद, टूटी चप्पल सही कराने की।    चप्पल वैसे ही काफी पुरानी हो चुकी थी तो पापा को लगा कि इसको सही कराने से अच्छा लाड़ली को नयी चप्पल ही दिला दी जाये।  शाम को दफ्तर से आते वक़्त पापा गुड्डू के लिए रंग बिरंगी चप्पल ले कर आये और आते ही गुड्डू को आवाज दी।  गुड्डू चिड़ी चिड़ी सी पापा के पास आई, पापा ने बैग से चप्पल निकाल के गुड्डू को पहना दी।  एक पल तो गुड्डू को चप्पल बहुत पसंद आई पर दूसरे पल जैसे ही उसे अपनी पुरानी चप्पल याद आई , फुट फुट के रोना शुरु। कहने लगी मुझे वही चप्पल चाहिए। 

अगले दिन मम्मी जैसे ही घर से जाने को हुई, गुड्डु मम्मी से चिपक के बोली, मैं भी चलूंगी चप्पल सही करवाने। मम्मी बोली, बेटा तू क्या करेगी, मैं खुद सही करवा लायुंगी। उदास गुड्डू कुछ न बोली। मम्मी ने चप्पल सही करवाके गुड्डू को दे दी, गुड्डू ख़ुशी ख़ुशी चप्पल पहनके खेलने चली गयी।  पर शाम को वही पुराना राग , चप्पल फिर से टूट गयी और गुड्डू का रोना शुरू।  

घर में किसी ने बोला भी कि शायद गुड्डी चप्पल खुद ही तोड़ देती है बाजार जाने को पर मम्मी ने सुना अनसुना कर दिया और अगले दिन चप्पल सही करवाने गुड्डू को भी साथ ले गयी।  मोची के यहाँ चप्पलों का ढेर लगा था बोला बहनजी कम से कम दो घण्टे लगेंगे आपका नंबर आने में।  मम्मी बोली गुड्डू चल चप्पल यही छोड़ देते है दो घण्टे बाद आकर ले जायेंगे।  पर गुड्डू को तो मम्मी की बात सुनाई ही नहीं दे रही थी , टूटी चप्पल एक कोने में पड़ी थी और गुड्डू मोची को काम करते देखने में मग्न थी।  

- पंथी  

Thursday, August 18, 2011

My Love

मेरी मोहब्बत बस कागज़ में रहती हैं

जहा दिल की जगह चेहरा देखा जाता हैं
जाति देखी जाती हैं, मज़हब देखा जाता हैं
चंद सिक्कों में इंसान तो क्या ईमान ख़रीदे जाते हैं
झूठी इज्ज़त के नाम पर अपना खून बहाया जाता हैं

जहा भावनाएं गुज़रे ज़माने के खिलोने के सिवा कुछ नहीं
रिश्ते समझोते का मुखोटे ओड़ी कठपुतलियों से बढकर नहीं
परम्परायों के नाम पर  पुराने ढकोसलो को ढोया जाता हैं
किसी की झोली भरी, तो किसी की खाली करी जाती हैं

इस मतलब परस्त दुनिया में
मेरी मोहब्बत बस कागज़ में रहती हैं



मैं

मैं  वो भावना हूँ जो अल्फाज़ धुन्ड़ता हैं, 
अपनी पहचान बनाने के लिए हंसकर तो कभी रोकर 
अनजाना डर रोकता हैं,  नयी नयी राहों पर चलने से 
पर मंजिलों की खुशबु आती हैं,
इन्ही न देखी न सुनी राहों से कही 
कहता हैं यह चेतन न रोको न टोको मुझे
बह जाने दो मुझे वक़्त के दरिया में कहीं
जो न मिल सके हम फिर कभी
करना न उदास अपनी आँखों को 
देख कर आसमान में पंछी को किसी
कर लेना याद मुझ पंथी को...

Wednesday, August 10, 2011

आम का पेड़

बचपन में मेरी एक आम के पेड़ से दोस्ती थी
मेरी जैसे उसके और भी बहुत से दोस्त थे
पर मैं उनकी तरेह उससे कुछ नहीं मांगता था
वो तो वो ही दो चार आम मुझे दे दिया करता था
जब मैं थक कर उसकी गोद में सो जाया करता था
उसके बाकी दोस्त मुझसे इस बात पर चिड़ते थे की
क्यों वो अपना सबसे मीठा फल मुझे ही देता हैं
सबको लगता था मैं उसका लाडला हूँ
पर सहीं जवाब न उन्हें पता था न मुझे

अब इस बात को बरसो बीत चुके हैं
सब अपनी ज़िन्दगी में मशरूफ हो चुके हैं
हर तरफ कंक्रीट के जंगल बनते जा रहे हैं
पर जब कभी मैं उस तरफ से गुज़रता हूँ
तो मुझे उस आम के पेड़ से नज़र बचा निकलना पड़ता हैं
क्योंकि मुझे देख वो भोलेपन से एक ही सवाल करता हैं

दोस्त मैं अपनी दोस्ती की कीमत तो नहीं मांगता बस
इतना पूछना चाहता हूँ,
क्या मैं तुम्हें एक और बरस मीठा फल दे पायूँगा ???

Tuesday, August 9, 2011

ऐ दिल तुड़ा कर दोस्तों की नींदें हराम करने वालो
अपनी सस्ती शायरी से शायरों का नाम बर्बाद करने वालो
दरखास्त हैं तुमसे
दरखास्त हैं तुमसे
क्यों मरते हो किसी के आंसूं पर
अरे उठो बुजदिलों मर्द बनो
बन सकते हो तो किसी की हंसी का हिस्सा बनो
किसी जरूरतमंद की दुआओं का कारण बनो
ज्यादा नहीं तो बस एक अच्छे इंसान बनो
पर भगवान् के लिए अपने, अपनों की नींदें मत हराम करो

इस रंजो गम से भरी दुनिया 
जहाँ लोगो के गम भूख और प्यास 
से ऊपर उठ न सके हैं
वहा मेरे दोस्त तुम अपने 
महंगे उपहारों की बेकद्री पर गम ज़दा न हो
मेरा मशवरा हैं तुमसे ऐ कमबख्तो 

मरते तो सब हैं पर कुछ ऐसा करके जायो
की ज़िन्दगी  खुद क़दमों पर आकर बोले
की ऐ ज़ालिम मुझे तुझ पर नाज़ हैं
मुझे तुझ पर नाज़ हैं....

Friday, October 29, 2010

Dost

कभी कभी तकिये पर किसी अजनबी से मुलाकात होती हैं
कुछ देर बातें करने के बाद पहचान पूरानी मालूम पड़ती हैं
थोडा कुरेदने पर जनाब की दिल की बात उजागर होती हैं
पता लगता हैं दोस्त तो हैं पर नाराज़गी बरसो पूरानी हैं
लाख कोशिशों के बाद भी चेहरा पहचाना नहीं जाता
भागती ज़िन्दगी में नाराज दोस्तों की भीड़ बढती जा रही हैं

जब भी उसको देखने को मूह करता हूँ
जाने क्या सोचकर मूह फेर लेता हैं वो
नाक कान आँखों का तो पता नहीं पर
कद काठी कुछ देखी सी मालूम पड़ती हैं
याद आ रहे हैं वो फुर्सत भरे पल
जब बातों बातों में अक्सर पीछे देख लिया करता था
और साया था या दोस्त हरदम
जिसे अपने पास पाया करता था......
-पंथी 

Friday, October 1, 2010

Uska Shehar

आज भी उस शहर के चक्कर लगा आता हूँ
वो बाजारों वो ठेलो वो दुकानदारों से मुलाक़ात कर आता हूँ
मेरा हाथ हाथ में लेकर जिन राहों को गौर से देखा तुने
उन राहों पर ज़न्नत को धुन्दती निगाहों में कुछ तो अपनापन आज भी हैं

वो दुकाने जहा से तू अपने लिए रेशम ख़रीदा करती थी
पर सजा रेशम आज भी तेरी मौजूदगी की निशानी ही तो हैं
अलग अलग रिश्तों के लिए कुछ न कुछ खरीद भी लेता हूँ
की उन दुपट्टों की भीड़ में रुसवाई से डरता चेहरा उस ख़ास का ही हैं

पर शायद तू भी इस शहर को, इन गलियों को छोड़ चुकी हैं
वो कलियाँ जो कभी तेरी खुशबु से गुलज़ार रहा करती थी
इस मौसम इ बहार में तेरी बेरुखी बयां कर रही हैं
मेरा पैगाम देना तो दूर तेरे ज़िक्र पर ही जोर से हंसती मालूम पड़ती हैं

वो मकान जिसके नीचे बैठकर घंटों तेरे आने का इंतज़ार किया करता था
से आज भी तेरी खोज खबर लेने कभी  कभार आ जाया करता हूँ मैं
मेरे बिना कुछ पूछे ही तेरे न जाने कितने किस्से सुनाता हैं मुझे
न वो बताता न मैं पूछता, पर मकानों के पते बदले भी एक उम्र हो चुकी हैं

जाते जाते बस इन पूरानी राहों से वादे लेकर जाता हूँ
की कभी कोई पलट कर मेरा पता पूछे तो यहीं कहना
इन्ही राहों पर काटीं हैं उम्र किया हैं सफ़र तमाम
यहीं सोचकर की किसी मोड़ पर तुझे मेरा इंतज़ार आज भी हैं